देखते है मुझे कौन लाइक करता है
हमे ढाई आखर प्रेम या स्नेह दोनो को पढना जरूरी है जो हमारी मानवता के लिये अमृत तुल्य है।राम से लेकर कबीर तक कहते रहे है कि इस ढाई आखर के क्रिया को जिसने अपने जीवन में उतार लिया उसने इस मानव जीवन को जीना ओर दूसरों को भी जीने देने को सीखा दिया है।आखिर भेद क्या है इन दोनो शब्दों में कि ये लोगां के लिये संजीवनी और सर्वप्रिय है। पत्थरो और लाइनो में इबादत करने वाले भी यही कहते है कि जिसने प्रेम और स्नेह के साथ जीना ] रहना सीख लिया उसने ही सत्य को पा लिया। नफरत और जंग के परिणाम तो अंतहीन और दुखदायी होते है।परंतु आखिर प्रेम ] प्यार या स्नेह है क्या ] कहते है प्रेमी ओर प्रेमिकाओं के बीच का लगाव प्यार है और इसकी हद से गुजरने की कला प्रेम कहलाती है।स्नेह तो अपनों और ममता या छोटो के लिये किया जाने वाला लगाव या अमृत होता है जिससे उनका बचपन ]भ्रातृत्व या नौनिहाल पल्लवित होता है।पर इन सभी में महत्व किसका बडा होता है यह विषय चर्चा का है। प्रेम या प्यार में हद से गुजरना हो सकता है जो कि एक स्वार्थ के कारण लगाव होना दर्शाता है कि कुछ पाने की आशा से किया गया कार्य कभी निश्चल नहीं हो सकता अपितु स्नेह एक हद में रह कर किया जाने वाला लगाव है जिसमें बिना किसी स्वार्थ के एक बरसात सी होती रहती है चाहे वह एक तरफा हो या निष्काम भाव से किया गया कर्म वह हमेशा से प्राप्तकर्ता के बिना कृतज्ञता व्यक्त किये भी देने वाला अविरल नदीं की धार सा बहता ही रहता है जैसे कि माता का पुत्र के साथ। प्रेमिका के कपट पूर्वक नायक के मॅा के कलेजे की माग पर अपने प्रेम के वास्ते किये गये वादे को पूर्ण करने के लिये मा द्वारा स्वंय अपनी चेष्टा से कलेजे का दान नायक के प्रति माता के समर्पण को दर्शाता है। कलेजे लेकर भागते नायक का पत्थर से ठोकर लग कर नीचे गिरने पर जोरो की प्रकृतिक स्वमेंव उपजी आवाज -------------------------------ओ मॅा--------------------------------पर कलेजे से आती आवाज --------------------------बेटा-----------------------------कहीं तुझे चोंट जोर से तो नहीं लगी की प्रतिघ्वनि आवाज का आना उसके ढाई आखर के स्नेह को बताता है जो सदैव निश्चल और समर्पित होता है अपनो के प्रति निश्काम भाव से बिना किसी प्रत्याशा या विचार के कर्म का मर्म यह है कि प्रेम बडा है या स्नेह बडा \
हमारी यही प्रेम या स्नेह जिसे हम लाइक करना या चाहत का नाम देते है सोंच लिजिये कि कितना निश्काम है।आजकल सजने ] सवरने और मॅासल शरीर का निर्माण होते ही दोनो पिण्ड नर हो या मादा इसकी उपयोगिता प्रेम को पाने या जाहिर करने के प्रयास में सडकों ]हाटों या आजकल सोशल मिडिया पर आकर लिखते है कि -------------^^ देखते है मुझे कौन लाइक करता है या मुझे लाइक करिये और अपना नंबर दिजिये बैगेरह बैगेरह।“ आखिर इस प्रकार की कामुक अप्सरा या गंधर्व मुद्रा का प्रदर्शन आखिर किस संसकृति को प्रदर्शित करता है जिसे पाने के लिये विपरीत योनी के लोग अपनी मर्यादा को सरे राह खोने तक में नहीं झिझकते और अपनी विवेक तक को त्याग कर स्वान या पशु तुल्य हरकते जो निंदनीय और जग हसाई का कारक होती है उसे करने से भी नहीं झिझकते है।तो क्या इस ढाई आखर के प्रेम में ही कोई खोट है कि एक तरफ कुआ तो दूसरी तरफ है खाई किधर जाये भाई। यहा कह दो करे ना कोई प्यार-----------------------वाली वात आती है।
ओशो के अनुसार प्रेम को स्वतः उपजने दो नदी की उनमुक्त धारा सी बहने दो बिना किसी रोक टोक के जहॅा उसका मन करे विभवाॅतर की ओर--------------------------------वहॅा जो समर्पण से भावना उत्पन्न होगी वही सच्चा प्यार और सृजन होगा ] कल्याण होगा । बलात या जबरन अपनी ओर खीचना] मोडना या पाने की चेष्टा करना अविकसित पुष्प को पल्लवित होने से पूर्व ही कुचल देने को परिचायक है।
पर खिलते हुये पुष्पों का भी दायितव है कि अपनी चपलता ओर धूर्तता को प्रदर्शित करने के क्रम में अगर एको शिव देव द्वितियोनास्ति पर विचार नहीं करते हुये पाश्चात्य का अध्ंाानुकरण करते हुये सभी भ्रमरों को स्वंयबंर की तरह आमंत्रित करने की कुत्सित चेष्टा कही उन्हे महॅगा नहीं पडें । क्योकि स्वंयबर में हारे हुये रावण और दुर्योधन केवल प्रतिशोध में निदंनीय कर्म का ही सहारा लेते है क्योकि क्रोध] काम और धृणा और प्रतिशोध केवल लक्ष्य पर केद्रिंत होती है परिणाम और बाद के लोकाचार और सामाजिक प्रतिष्ठा पर नहीं।